Tuesday 15 December 2015

अभिवादन का महत्व


अभिवादन करने का अर्थ सामने वाले के प्रति समर्पण नहीं बल्कि प्रभु का स्मरण और आभार ज्ञापन है जिसका अंश उसमें है। उस परम शक्ति के प्रति विनम्र भाव हमें विकट परिस्थितियों में राह दिखाता है। जब हम नेक मंसूबों से प्रभु के समक्ष झुकते हैं तो वह हमारे साथ खड़ा हो जाता है, और जब वह हमारे साथ होता है तो हमारे विरुद्ध कोई नहीं टिक सकता।

प्रकृति की लीलाएं चिरकाल से अबूझ रही हैं। सिद्ध ज्ञानी-विज्ञानी प्रभु द्वारा नियमित प्रकृति की गुत्थियां सुलझाने में मानवीय चेष्टाओं के बौनेपन को समझते हुए सदा नतमस्तक रहें। विज्ञान तो उस परम शक्ति के आगे, बहुत हुआ तो पानी भर सकता है। थॉमस अल्वा एडीसन ने कहा, यदि लैब में घास का एक तिनका भी ईजाद कर लिया जाए तो विज्ञान का लोहा माना जाए। न्यूटन, आइंस्टाइन सरीखे शीर्ष वैज्ञानिकों ने सदा प्रभु के प्रति विनम्रता की पुरजोर वकालत की।

विनम्रता के बदले धृष्टता से पेश आना ईश्वरीय इच्छा और प्राकृतिक विधान का उल्लंघन है, इसीलिए दंडनीय है, जिसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। बच्चों को सिखाया जाता है कि बड़ों व अन्यों को प्रभावित करने के लिए उनके समक्ष कैसे पेश आएं, यह नहीं कि उनके प्रति भाव कैसा हो या अंतःकरण को कैसे पुख्ता किया जाए। मनोयोग से किए जा रहे अभिवादन की महक और रस्म निभाते अभिवादन की दुर्गंध छिपती नहीं है। जब हम निश्छल भाव से नतमस्तक होते हैं तभी सामने वाला दिल से हमें ऐसी दुआएं देता है जो हमें लगती हैं।

मनुष्य चलता-फिरता मांस का लोथड़ा नहीं है, उसका दैविक गुणों से परिपूर्ण ऊर्जावान स्वरूप भी है। दूसरे जीवों की उपस्थिति में आपसी अंतर्क्रिया से ऊर्जा का आदान-प्रदान होता है। सुबह के सूर्य नमस्कार और भवन निर्माण से पहले भूमि-पूजन में ऊर्जा के असीम स्रोत और समस्त चराचर जगत को संबल देती पृथ्वी के प्रति नतमस्तक होकर आह्वान किया जाता है ताकि उनकी कृपादृष्टि बनी रहे। फलों से लदे झुके वृक्ष की भांति ज्ञान की जिज्ञासा व सद्कार्यों में सराबोर व्यक्ति के मन में अहंकार के लिए स्थान कहां। इसीलिए कहते हैं, जो सच्चे ज्ञानी होते हैं उन्हें अपने ज्ञान का अहंकार नहीं होता चूंकि उन्हें अपने अज्ञान का पता रहता है।

दोनों हाथ जोड़कर, दूसरे से हाथ मिलाकर या हिलाकर, आलिंगन, चुंबन आदि तरीकों से अभिवादन की प्रथाएं प्रचलन में हैं। मेलभाव संवर्धित करने के लक्ष्य से डेढ़ सौ से अधिक देशों में प्रतिवर्ष 21 नवंबर को विश्व अभिवादन दिवस मनाया जाता है। इस आयोजन को अनेक जानी-मानी हस्तियों का समर्थन प्राप्त है। अभिवादन से दो व्यक्तियों के बीच की रिक्तता टूटती है, संशय के बादल छिटकते हैं और संवाद के द्वार खुलते हैं। आज यह बहुत आवश्यक है।

Friday 4 December 2015

जो बोओगे वही पाओगे सुख दुःख है शुभकर्मो का


किसी गांव में एक किसान रहता था। उसके पास भी लगभग उतनी ही जमीन थी जितनी गांव के दूसरे किसानों के पास, लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति सबसे अच्छी थी। वह हमेशा अच्छे से अच्छे बीज अपने खेतों में बोता था। उसके खेतों में उगने वाली फसलें सबसे अच्छी होती थीं। बीज तो बाकी किसान भी अच्छे ही बोते थे, लेकिन उनकी फसलें उतनी अच्छी नहीं होती थीं। यह किसान बहुत समझदार व उदार हृदय था। वह जैसा उत्तम बीज अपने खेतों में बोता था वैसा ही उत्तम बीज अपने आसपास के किसानों को भी खरीदवा देता था। और जो किसान उत्तम व महंगे बीज नहीं खरीद पाते थे, ये बीज वह उन्हें खुद ही खरीदकर दे देता था। इसीलिए पड़ोसी किसान उसकी तारीफ करते न थकते थे।

एक बार एक व्यक्ति ने उससे पूछा कि भाई तुम अच्छे वाले इतने महंगे बीज मुफ्त में क्यों बांट देते हो? इस पर किसान ने जवाब दिया-'इससे तो मुझे ही फायदा होता है। 'पर कैसे?' उस व्यक्ति ने आश्चर्य से पूछा। किसान ने बताया- 'जब फसलों में बौर आता है तो उसके परागकण उड़कर इधर-उधर चले जाते हैं। हमारे आसपास के खेतों का हमारे खेतों की फसलों पर गहरा असर पड़ता है। हमारे आसपास जैसी फसलें होंगी कुछ समय के बाद हमारी फसलें भी वैसी ही हो जाएंगी।

मेरे आसपास के खेतों में अच्छे बीजों से उत्पन्न पौधों के परागकण जब मेरे खेतों में उगे पौधों पर आते हैं तो वे अच्छे होने के कारण मेरी फसल को खराब नहीं करते। यदि पड़ोसियों के खेतों में घटिया बीजों से उत्पन्न पौधे होंगे तो उनसे आने वाले परागकण मेरे अच्छे बीजों से उत्पन्न पौधों को भी खराब कर डालेंगे और मेरी फसल का मूल्य कम हो जाएगा। इसीलिए मैं अपने पड़ोसियों को अच्छी किस्म के बीज बोने में उनकी हर संभव मदद करता हूं।

इसी प्रकार हमारे परिवेश का भी हमारे घर-परिवार और स्वयं हमारे ऊपर सीधा असर पड़ता है। इसलिए हमारे लिए आवश्यक है कि हम एक अच्छे समाज के निर्माण के प्रति लापरवाही न बरतें। यदि हमारे आसपास कुछ कमियां हैं तो उन्हें फौरन दूर करने की दिशा में सक्रिय हो जाएं। यदि हम अपने घर को तो साफ-स्वच्छ रखते हैं, लेकिन हमारे पास-पड़ौस में गंदगी व कूड़ा पड़ा है अथवा पानी रुका हुआ है, तो उसमें से उठने वाली दुर्गंध व बीमारियां फैलाने वाले मच्छर-मक्खियों को हम तक पहुंचते देर नहीं लगेगी।

जितनी घर की स्वच्छता जरूरी है, उतनी ही स्वच्छता अपने आसपास व संपूर्ण परिवेश की भी है। भौतिक परिवेश के साथ-साथ सांस्कृतिक परिवेश भी महत्वपूर्ण है। हमें अपने पूरे समाज व राष्ट्र को शिक्षित व समझदार बनाने के प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि जैसा हमारा समाज व राष्ट्र होगा वैसे ही हम स्वयं भी हो जाएंगे।