Tuesday, 7 March 2017

विवाह की उपयोगिता


बेटी विदा होगी तो बहू बनकर जाएगी और घर में बेटी आएगी तो बहू बनकर। वधू-आगमन के अवसर पर सभी का मन-मस्तिष्क विचारों की दौड़ लगाने में व्यस्त हो जाता है। विवाह के समय मंत्रोच्चारण से शुभ-कामनाओं और संकल्प आदि द्वारा श्रेष्ठi क्रम का विस्तार कराया जाता है। पति-पत्नी को उनकी भूमिका से अवगत कराया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि तुम दोनों एक दूसरे के पूरक हो। संयम ही तुम्हारा धर्म है। निष्ठा ही तुम्हारी पगडंडी है। परस्पर का समर्पण ही तुम्हारा संतुलन है। उन्हें उत्तरदायित्वपूर्ण जीवन प्रणाली के विषय में बताया जाता है। वर-वधू इस पवित्र संदेश को ग्रहण कर जीवन की शुरुआत करते हैं। इससे उनका जीवन मंगलमय होता है। वे दूसरों के जीवन को भी मंगलमय बनाते हैं। यूं ही जीवन में विस्तार कर लेना तो पाशविक मानसिकता है। लेकिन स्त्री-पुरुष के रूप में परिवार और समाज को जोड़ने के संकल्प के साथ आगे बढ़ना ही पूर्णता है। इससे परिवार समाज और राष्ट्र संतुष्ट होता है।

स्वार्थ से ऊपर उठकर प्रदाता बनने की प्रक्रिया में ही सफलता निहित है। काल्पनिक घोड़े पर सवार हो, एक ही छलांग में समस्त किलों को भेदकर अपना साम्राज्य स्थापित करना सबसे बड़ी भूल है। कल्पनाओं के सागर में केवल मनोरंजन होते हैं। संबंध केवल भोग का नहीं, अपितु परस्पर विकास का योग है। पति-पत्नी होने का अर्थ है- एक दूसरे के लिए अपार समर्पण। एक-दूसरे को समझना। एक-दूसरे के प्रति दायित्वों का निर्वाह। सबको अपने आप में समटते हुए चलना। यानी व्यक्तिगत जीवन में समष्टि को भी लेकर चलना।

जहां स्वार्थ आता है, दायित्व की भावना क्षीण होने लगती है। सत्य का भी अनादर होने लगता है। यह विचार विकसित होने लगता है कि मेरा आधिपत्य है। मेरे लिए कर्तव्य नहीं, बस अधिकार है। पुरुषसत्तात्मक समाज की यही विडंबना रहती है। उसे समझना होगा कि पत्नी बोझ नहीं होती, वही उदारतापूर्वक सबके विचारों का बोझ ढोती चलती है।

कलह का कारण केवल आधिपत्य स्थापित करने की मंशा है। यदि माली की भांति पति-पत्नी को घर की बगिया सजानी है तो अपने-अपने कर्तव्यों को समझना होगा। उसका निर्वाह करना होगा। माली बाग को तभी सजा पाता है जब बेकार की चीजों को उखाड़ फेंकता है। वह असंयमित रूप से उग रही खर-पतवार को हटा देता है क्योंकि वे वृक्ष का पोषण लेकर उसे निस्तेज करती है। ऐसे ही जीवन में उगी खर-पतवार को भविष्य-दृष्टा बनकर निकालना ही होगा। पति-पत्नी परस्पर एक ऐसा गहरा संबंध है जिसकी तुलना एक सागर से की जा सकती है। एक ऐसा सागर जिसके गर्भ में अमूल्य रत्न, समृद्धि संस्कार आदि काल से अब तक पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित हैं। वहां प्रकृति-पुरुष (विष्णु-लक्ष्मी) विराजते हैं। वे जगत के विस्तार की पोषण के साथ आनंदमय क्षणों में जीवन को और सौंद्रय प्रदान कर रहे हैं। यह समझ लेना चाहिए कि सुंदर विश्वासों से ही आदर्श जीवन का निर्माण होता है।

No comments:

Post a Comment