Monday, 30 November 2015

आत्मनिरीक्षण से जीवन को सुंदर बनाये


इनकम-टैक्स रिटर्न भेजने से पहले हम, अपने आय-व्यय का पूरा विवरण तैयार करके ऑडिट करने के लिए अपने चार्टर्ड एकाउंटेंट के पास भेजते हैं। वह हमारे लेखे-जोखे को ऑडिट कर उसकी कमियां ठीक करने के लिए सुझाव देता है। हम गलतियां सुधारकर निश्चिंत हो जाते हैं। लेकिन आय-व्यय के विवरण की तरह हम अपने दिन-प्रतिदिन के कार्य-व्यवहार में से प्रिय और अप्रिय का कभी ऑडिट न खुद करते हैं और न किसी जानकार से कराते हैं।

कार्य-व्यवहार में जिसे हम 'ऑडिट' कहते हैं, अध्यात्म में वह 'आत्म-निरीक्षण' कहलाता है। यानी हमने जो भी कुछ किया है, उसमें से अच्छे-बुरे का आकलन। ऐसा भी नहीं सोचते कि हमारे संपर्क में जो भी परिजन, मित्र, हितैषी, पड़ोसी आए, उनमें से ऐसे कितने हैं जिन्हें हमसे मिलकर खुशी हुई। हमसे बात कर क्या उनका मन बोला कि कैसा कमाल का आदमी है?

इसी तरह हमारे परिचय में जो आए, उनमें ऐसे कितने हैं जिनसे मिलकर हम आनंदित हुए? क्या वे हमारे हाव-भाव से प्रफुल्लित हो हमसे फिर मिलना चाहेंगे? अगर हमसे मिलकर कोई खुश नहीं होता या हमसे दोबारा मिलने की इच्छा नहीं रखता तो हमारी यह आत्मनिरीक्षण रिपोर्ट नकारात्मक है। हमें एडिटिंग की जरूरत है।

एडिटिंग का अभिप्राय आत्म-संशोधन से है। हमसे मिलकर अगर लोग फिर से मिलना नहीं चाहते तो या तो हमारी प्रकृति उन्हें पसंद नहीं है, उसमें कोई दोष है या वे लोग हमारे मिजाज से ऊब गए हैं। हमें अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति में सुधार की आवश्यकता है। यह हम ही कर सकते हैं। हमारा ऑडिट तो कोई भी कर देगा। लेकिन अपने आप में संशोधन करने का काम हमें स्वयं करना होगा।

आइने में हम अपना चेहरा, सिर्फ देखने के लिए ही तो नहीं देखते। बल्कि अगर उसमें कोई दाग-धब्बा है तो उसे दूर भी करते हैं। तो क्या जान लेने के बाद भी हमें अपने अंदर के धब्बों को साफ नहीं करना चाहिए? या हम यही सोचते रहेंगे कि उसे ऐसा नहीं होना चाहिए, अमुक को ऐसा नहीं करना चाहिए। कभी अपने बारे में नहीं सोचेंगे कि हमें कैसा होना चाहिए?

लकड़ियों में अग्नि तभी प्रज्वलित होती है जब सभी लड़कियां सूखी हों। अगर एक लकड़ी गीली या हरी होगी तो आग नहीं जलेगी। मान लें कि हमारे सामने वाला सूखी लकड़ी की तरह सुलगने के लिए उतावला है। तो क्या हम कोमल, हरी लकड़ी बनकर उसके उतावलेपन को शांत नहीं कर सकते? जैसे व्यापारी हर शाम दुकान बंद करते समय दिन भर की बिक्री और खर्चों का हिसाब लगाता है और भाव-ताव में हुई गलती को दूसरे दिन नहीं दोहराता, वैसे ही हम भी रोज अपने में से अप्रिय का संशोधन कर उसकी पुनरावृत्ति न करने का संकल्प लें तो न केवल हम सब के प्रिय बनेंगे अपितु परमात्मा के निकटतम 'प्रिय' में हमारा नाम पहला होगा।

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